(अशोक कुमार अश्क)
चिरैयाकोट (मऊ), कोविड 19 जैसे खतरनाक वायरस के संक्रमण से इस समय पूरा विश्व संकट के काल से गुजर रहा है। कमोबेश पूरे विश्व की अर्थव्यवस्था पटरी से उतर कर डगमगा रही है। हमारे देश में पिछले 41 दिनों से लगातार लाकडाउन रहने के कारण एक आम आदमी के घर की भी अर्थिक स्थिति लड़खड़ा रही है। लोगों का कारोबार ठप है। रोजगार बंद हैं। दैनिक मजदूरी करने वाले मजबूरी में हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं। उसके बावजूद भारत के लोग कोरोना युद्ध में पूरे मनोयोग से लड़ाई लड़ रहे हैं और सरकार के साथ कंधा से कंधा मिलाकर खड़े हैं। ऐसे में लाकडाउन के तीसरे चरण के आरंभ होने के पहले दिन सोमवार से शराब की दुकानों का खुलना लोगों के लिए कौतूहल का विषय बना रहा और तरह-तरह की चर्चाएं होती रहीं। वर्तमान समय की परिस्थितियों को देखते हुए कि जहाँ एक ओर मंदिर के कपाट और मस्जिद के दरवाजे बंद हैं। वहीं दूसरी ओर मदिरालय के द्वार खुले हुए हैं, से आज से लगभग 85 वर्ष पहले सन् 1935 में रचित देश के सुप्रसिद्ध कवि हरिवंश राय बच्चन की लोकप्रिय रचना मधुशाला की कुछ रूबाइयां चरितार्थ होती नजर आ रही हैं। सामाजिक समरसता व सांप्रदायिक एकता को लेकर उनके द्वारा रचित एक रूबाई- मुसलमान औ हिन्दू हैं दो, एक मगर उनकी हाला ; एक मगर उनका मदिरालय, एक मगर उनकी हाला; दोनों रहते एक न जब तक, मंदिर मस्जिद में जाते; बैर बढाते मस्जिद मंदिर, मेल कराती मधुशाला।। की आखिरी पंक्ति आज प्रासंगिक हो गयी।
इस समय रमजान का महीना चल रहा है। जिसमें रोजेदारों के लिए खजूर की काफी महत्ता है। थोड़ा – बहुत कहीं मिल भी रही है तो गत वर्षों की अपेक्षा इस बार उसकी कीमत लाकडाउन के चलते दुगुनी हो गयी। जिसे खरीदना सबके बस की बात नहीं है। ईद के मद्देनजर कपडों व जूता-चप्पल की बिक्री खूब होती है। परन्तु इस बार कपड़ा व फुटवियर व्यवसायी तथा कपड़ा सिलने वाले बेरोजगार हो गये हैं और लाकडाउन के खुलने या सरकार से मिलने वाली किसी रियायत की आस लगाये हैं। बाजारों में सन्नाटा पसरा है। इस परिवेश को देखकर मधुशाला की एक और रूबाई याद आ जाती है कि– सब मिट जाएँ बना रहेगा सुन्दर साकी यम काला; सूखें सब रस, बने रहेंगे किन्तु हलाहल औ हाला; धूमधाम औ चहल-पहल के, स्थान सभी सुनसान बनें; जगा करेगा अविरत मरघट, जगा करेगी मधुशाला।।
सोशल डिस्टेंसिंग को लेकर वर्तमान समय में मंदिरों में भजन-कीर्तन, मस्जिदों में नमाज, रमजान माह में होने वाली तराबी सभी बंद हैं। परंतु मदिरालय के खुलने पर बच्चन जी की पुनः एक रूबाई जीवन्त हो उठती है कि– बजी न मंदिर में घड़ियाली, चढी न प्रतिमा पर माला; बैठा अपने भवन मुअज्जिन, देकर मस्जिद में ताला; लुटे खजाने नरपतियों के, गिरीं गढो की दीवारें, रहें मुबारक पीने वाले, खुली रहे ये मधुशाला।।
वर्तमान हालात और देश की आजादी के पहले रची गई उक्त रूसवाइयों की प्रासंगिकता को देखकर यही कहा जा सकता है कि जहाँ न पहुंचे रवि, वहाँ पहुंचे कवि।
बिल्कुल सटीक यथार्थ विश्लेषण