(ऋषिकेश पाण्डेय)
मऊ। वैश्विक कोरोना संकट के बीच करीब पैंसठ दिनों तक देश में हुए लाकडाऊन में देश की अर्थव्यवस्था ही ध्वस्त नहीं हुई है।बल्कि हालात के तीरों ने एक-दूसरे को बेपनाह मोहब्बत करने वाले दिलों को भी छलनी करके रख दिया है।जो मोहब्बत में अपनी मुमताज के लिए सपनों का ” ताजमहल” बनाने के वादे करके महानगरों में मजदूरी करने के लिए कूच कर जाता है।स्थिति यह है कि अभी भी ऐसे दिलों के शहंशाह, उनके अरमानों को पूरा करना तो दूर,चाहतों के पीछे-पीछे चलने का साहस भी नहीं जुटा पा रहे हैं।यह अलग बात है कि एक-दूसरे पर मरने वालों में से कोई भी फिलहाल अल्लाह को प्यारा नहीं हुआ है।जबकि एक-दूसरे के कसमें-वादों पर गौर किया जाय तो वे प्रायः ऐसी ही कसमें खाते रहे कि वे एक-दूसरे के बिना जिंदा नहीं रह पायेंगे।फिल्म “मैंने प्यार किया” में सलमान खान ने कङी मेहनत और मजदूरी करके दो प्यार करने वाले दिलों के लिए जो नजीर पेश की।उसके अनगिनत उदाहरण समाज में देखे जा सकते हैं।जो अपने प्यार को हासिल करने के लिए मजदूर बनने को भी मजबूर हो जाते हैं।बहरहाल,यह संकट और कोरोना की दहशत ऐसे ही मजदूर वर्ग के लिए अब दो जून की रोटी के इंतजामों के आगे बौना साबित होने लगी है।नियमित ट्रेनों की आवाजाही बंद है।बसों का संचालन भी पहले की अपेक्षा काफी कम हो रहा है।इसके बावजूद मजदूर वर्ग शहरों के चौक पर काम की उम्मीद में खङा नज़र आ रहा है।अनलाक वन में ही मजदूरी करके अपने परिवार की गाड़ी खींचने की बेताबी साफ-साफ दिख रही है।सरकार की ओर से मिलने वाली सहायता राशि ऊंट के मुंह में जीरा ही साबित हो रही है।ध्वस्त हुई अर्थव्यवस्था का असर अभी से लोगों की जिंदगी पर असर करते दिख रहा है।कितनों की तय हो चुकी शादी की तिथियां टल गयीं तो कितनों के कैरियर बनाने के सपने बिखर गये।कितनों के घरों की ढलने के कगार पर पहुंच चुके छत के लिंटर रूक गये तो कितनों के अरमां आंसुओं में बह गये।मंहगाई चरम सीमा पर पहुँच गयी है।डीजल-पेट्रोल और रसोई गैस की कीमतों से लेकर भवन निर्माण सामग्री और प्रायः जीवनोपयोगी हर वस्तुओं के दामों में अप्रत्याशित रूप से वृद्धि हुई है और आगे भी कोई जादू की छङी नहीं आने वाली।जिसके घुमाते ही देश से मंहगाई छू-मंतर और अर्थव्यवस्था झटपट पटरी पर आ जाएगी।देश की अर्थव्यवस्था अब तभी रफ़्तार पकङ सकती है,जब देश का मजदूर वर्ग कङी धूप में पसीने बहाकर विकास की नई इबारत लिखने को फिर से तैयार होगा और यह तभी संभव है,जब मजदूर वर्ग के लिए भ्रष्टाचार मुक्त कार्य योजना बने।वरना,साये में धूप लगेगी तो धूप में पसीना कैसे सूखेगा।हालांकि मजदूर वर्ग की बेबसी का आलम यह है कि वह धूप में पसीना सुखाने के लिए भी तैयार है।यह लाचारी दो जून की रोटी का इंतजाम करने की मजबूरियों की दास्ताँ बयां करने के लिए काफी है।
सशक्त लेखन