(ऋषिकेश पाण्डेय)
मऊ।अमूमन मौत का नाम सुनकर लोग थर्रा उठते हैं।लेकिन,कोरोना का नाम सुनकर लोग तो लोग अब मौत भी थर्रा उठी है।शायद,यही वज़ह है कि लोगों ने आजकल मरना भी कम कर दिया है।यह पुष्टि सरयू नदी के तट पर स्थित मुक्ति धाम के रिकॉर्ड से भी होती है।जहाँ मऊ जनपद के अलावा बलिया, देवरिया और गोरखपुर जनपदों के भी कुछ हिस्सों के लोग शवदाह के लिए लाये जाते हैं।मुक्ति धाम के चेयरमैन गुलाब चंद्र गुप्त ने बताया कि यहाँ प्रति दिन बीस से पचीस शव अंतिम संस्कार के लिए लाये जाते रहे।जिससे प्रति माह करीब आठ सौ लोगों का यहाँ बेङा पार होता रहा है।एक जनवरी से नौ मई तक कुल 3458 मृतकों की चिताएं जली हैं।जबकि लाकडाऊन की अवधि 25 मार्च से नौ मई तक कुल 902 लोगों की ही अस्थियाँ विसर्जित की गयीं हैं।इस प्रकार देखा जाय तो इस डेढ़ माह में प्रति माह आठ सौ के आंकङे के सापेक्ष छह सौ लोगों का ही बेङा पार हुआ है।जो तुलनात्मक रूप से यह साबित करता है कि कोरोना काल में सामान्य रूप से मरने वालों की रफ़्तार में कमी आयी है।लाकडाऊन में होने वाली मौतों से उत्पन्न परेशानयों पर नज़र डाली जाय तो जिन घरों से आजकल अर्थियां उठ रही हैं।उन अर्थियों को कंधा देने वाले लोग भी बमुश्किल से ही मिल रहे हैं।शव यात्रा में शामिल होने वाले लोगों की संख्या नगण्य हो चली है। तेरहवीं के दिन होने वाले ब्रह्मभोज का दायरा भी सिमटता चला जा रहा है।जिससे लोग सिर्फ औपचारिकताएं निभाने पर मजबूर दिख रहे हैं।सबसे बुरी स्थिति उन परिवारों की है।जिनके घरों में मैन पावर की कमी है।उन घरों से निकलने वाले जनाजों को या तो पुलिस कंधे दे रही है या साम्प्रदायिक सौहार्द की बयार बहते देखने वाले वे लोग जिन्हें हम मज़हब की दीवार खङी कर समाज में नफ़रत की नज़र से देखने का माहौल पैदा कर दिये हैं।ऐसे हालात में गंगा-जमुनी तहजीब ही वर्तमान परिस्थितियों में संकट मोचन बनकर अपने दायित्वों का निर्वाह करते दिख रही है।
कोरोना के भय से थर्रा उठी मौत! मुक्ति धाम पर छलांग लगा रहे मुर्दों की रफ़्तार में आयी कमी
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Hello world!
on
बेहतरीन सर, बहुत उम्दा